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कविता

वैसी सुरक्षा

लीलाधर जगूड़ी


वैसी सुरक्षा मुझे असुरक्षा में डाल देती है
मूर्तियाँ सुरक्षित हैं
क्‍योंकि वे दाना पानी नहीं लेतीं
और गोबर इत्‍यादि नहीं करतीं

अगर मैं मनुष्‍य होकर नहीं रह सकता
वनस्‍पति होकर नहीं रह सकता
जल और वायु होकर नहीं रह सकता
हजारों प्रकाश वर्ष लंबी किरण बनकर
नहीं रह सकता विराट अमूर्त में
तो मूर्ति बनकर भी मैं सुरक्षित नहीं हूँ

मूर्ति बनते ही
इच्‍छाएँ सारी खत्‍म हो जायेंगी
सपने सारे मर जायेंगे

(एक मूर्ति होगी जो मैं नहीं होऊँगा)

 


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